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कोई लाठी के सहारे जी रहा तो कोई दूध के लिए तीन-तीन दिन कर रहा इंतजार

चारों तरफ वीरान जंगल। बीच में एक कच्ची-पक्की सड़क। लाठी के सहारे ठहर-ठहर कर चलती एक बुजुर्ग महिला पर मेरी नजर पड़ती है।यह महिला कभी आगे बढ़ती है, कभी थककर बैठ जाती है। ये 82 वर्षीय भुवनेश्वरी देवी हैं। वो सुबह अपने घर से दूध का पैकेट लेने की उम्मीद में निकली थीं। दोपहर होने पर अब खाली हाथ ही घर लौट रही हैं।कहती हैं, ‘निराशा ही अब मेरी नियति बन गई है। धीरे-धीरे सब मेरा साथ छोड़ गए हैं। बस यह लाठी ही अब मेरा एकमात्र सहारा है।’मैं इस समय पौड़ी से करीब दस किलोमीटर दूर और पौड़ी-श्रीनगर (उत्तराखंड) मार्ग से तीन किलोमीटर दूर रावत गांव में हूं। करीब आधे घंटे की चढ़ाई के बाद मैं यहां पहुंची हूं।पहाड़ी पर बसे भुवनेश्वरी देवी के गांव में अब इक्का-दुक्का बुजुर्ग लोग ही रह गए हैं।उत्तराखंड में ऐसे कई गांव हैं जहां बुजुर्ग अकेले रह गए है। इन गांवों को उत्तराखंड सरकार ने भुतहा गांव का नाम दिया है।सरकार के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में भुतहा गांवों की संख्या बढ़ रही है। साल 2011 तक उत्तराखंड में 1034 गांव ऐसे थे जहां कई नहीं रहता, लेकिन हाल के डेटा के मुताबिक राज्य में अब 1792 गांव बिल्कुल खाली हैं।

सारी गलियां सूनी हैं। न कोई बच्चा खेलता हुआ दिखता है न कोई नौजवान।खूबसूरत वादियां और हरे-भरे जंगल के बीच बसा ये गांव वीरान क्यों है? भुवनेश्वरी और उन जैसे लोगों के जीवन में अकेलापन क्यों है? मेरी आंखें इन सवालों का जवाब तलाशने लगती हैं।भुवनेश्वरी कहती हैं, ‘82 सालों में मैंने जीवन के कई रंग देखे हैं। बदलते मौसम और रिश्ते देखे। दस साल पहले पति की मौत के बाद जिंदगी में सिर्फ अकेलापन रह गया।’इतना कहकर वो चुप हो जाती हैं। कुछ सेकेंड के बाद कहने लगती हैं, ‘जिंदगी तो बूढ़ों की भी होती है। कोई बूढ़ा मरना नहीं चाहता।मैं भी जब तक जान है तब तक जीना चाहती हूं। यह भी सच है कि पहाड़ की मुश्किलों ने अब मुझ जैसी जिंदादिल औरत को तोड़ दिया है।’आपके कितने बच्चे हैं? वो कहां है?मेरे इस सवाल से वो और दुखी हो गईं। कहने लगीं, ‘तीन बेटी और एक बेटे की मां हूं मैं। काम की तलाश में 18 साल पहले बेटा दिल्ली गया था।वहीं अचानक उसकी तबीयत खराब हो गई। उसे जिंदा नहीं बचाया जा सका। मैं इतनी बदनसीब मां हूं कि उसके शव को भी नहीं देख पाई।बेटे की मौत के बाद पति सदमे में चले गए। उन्होंने खटिया पकड़ ली, और फिर वो भी मुझे छोड़कर चले गए।इसके बाद से बहू अपने मायके चली गई। बेटियों की शादी हो चुकी थी। इस तरह मैं अकेली रह गई।’भुवनेश्वरी देवी अपने ससुर के बनाए जिस मकान में रहती थीं, कुछ साल पहले वो भी ढह गया था।उन्होंने कर्ज लेकर एक कमरे का घर बनाया है, जिसमें किचन और बाथरूम कमरे के साथ ही लगा है।आज यहां इंसानों से ज्यादा जानवरों की आवाज सुनाई देती है। हर समय जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है।भुवनेश्वरी ने कई बार बाघ देखा है।कहती हैं, ‘62 साल पहले मैं यहां ब्याह कर आई थी। तब ये एक खुशहाल गांव था। जो मकान अभी आपको खंडहर से दिख रहे हैं, उनमें लोग रहते थे।जहां आज आप झाड़ियां देख रही हैं न, वहां कभी खेत हुआ करते थे।मैंने कई पुराने मकानों को ढहते हुए अपनी इन्हीं आंखों से देखा है। मेरे मकान की भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी।मुझे डर था किसी दिन मैं इसी मकान में दब न जाऊं। नए घर को बनाने के लिए सरकार ने भी कोई मदद नहीं की। छह साल मैंने सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटे हैं।मैंने उनसे पूछा- इतना कुछ आप अकेले सह रही थीं। गांव क्यों नहीं छोड़ा?इस सवाल पर भुवनेश्वरी देवी सिर्फ एक लाइन कहती हैं- ‘मेरी यही ख्वाहिश है कि अब मेरी अर्थी ही यहां से उठे। ’मैं वहां से चलने लगती हूं तो मुझे रोककर भुवनेश्वरी देवी कहती हैं, ‘अच्छा लगता है जब कोई मिलने आता है। वर्ना ऐसे तो जब मैं मकान के नीचे दब जाती तब ही ब्लॉक से लोग आते। पुलिस आती। सब यहां जमा होते, लेकिन तब लोगों के यहां आने का मुझे क्या फायदा होता।’ रावत गांव में रहने वाली भुवनेश्वरी और उन जैसे लोगों को दूध से लेकर नमक-आटे तक हर चीज के लिए बाहर जाना पड़ता है। जरूरत के हर सामान के लिए वो पौड़ी के बाजार पर निर्भर हैं, जहां आना-जाना आसान नहीं है। अगर वो बीमार पड़ें तो देखने वाला कोई नहीं है। घर में सामान खत्म हो जाए तो लाने वाला कोई नहीं है। उनके घर के बाहर लाइट नहीं लगी है। उन्होंने कई बार इसके लिए सरकार से अपील की, लेकिन उन्हें लाइट नहीं मिली। एक किस्सा सुनाती हैं, ‘एक बार मैंने अपनी तकलीफ डीएम के सामने रखी थी। सब कुछ सुनने के बाद उन्होंने कहा कि मैं अकेले यहां क्यों रह रही हूं। अपनी बेटी के घर क्यों नहीं चली जाती। मैंने भी उनसे कहा दिया कि मैं अपने घर से क्यों जाऊं। ये गांव ही मेरा जीवन है। अब आप ही बताओ- बेटी के घर कोई कितने दिन रहेगा। सरकार और प्रशासन अकेले रहने वाले बुजुर्गाें के लिए कुछ नहीं करतीं। बस ज्ञान बांटती हैं।’ इसी गांव में मेरी मुलाकात रमावती से होती है। वो भी अपने घर में अकेली हैं। आंखों में आंसू लिए कहती हैं, ‘किसके यहां जाऊं समझ नहीं आता। जब कभी बुखार आता है तो दो-तीन दिन तक ऐसे ही पड़ी रहती हूं। कोई देखने भी नहीं आता। मैं किसको बोलूं कि मुझे देखने आओ। कमरे में ऐसे ही किसी दिन मर जाऊंगी। गांव वालों को पता चल गया तो ठीक, नहीं तो अपने कमरे में ऐसे ही पड़ी रहूंगी।’ पुराने वक्त को याद करते हुए रमावती कहती हैं- ‘पहले पूरा गांव भरा था। लोग यहां रहते थे। सब मिलकर रहते थे। खेती करते थे, सब कुछ यहीं होता था। तब माहौल बहुत अच्छा था। लोग एक-दूसरे की मदद करते थे। अब कोई किसी को पूछता भी नहीं है।’ इनसे मिलने के बाद पास के ही रैंगाण गांव में मेरी मुलाकात 62 वर्षीय गुड्डी देवी से हुई जो अपने पति के साथ रहती हैं। वो तीन लड़की और एक लड़के की मां हैं। सभी बाहर रहते हैं। गुड्डी देवी के जीवन में बस इतनी राहत है कि बात करने के लिए उनके साथ पति हैं। उनकी जिंदगी में मुश्किलें तो हैं, लेकिन भुवनेश्वरी देवी जैसा सन्नाटा नहीं। गुड्डी कहती हैं, ‘बच्चे साथ नहीं हैं, अकेले में बहुत परेशानी होती है। बच्चे साथ होते हैं तो मदद मिल जाती है। मुझे इस बुढ़ापे में सब काम खुद ही करना पड़ता है। क्या करूं मजबूरी है। बच्चे कहते हैं कि हमारे साथ चलो, लेकिन मैं नहीं जा पाती। वहां अधिक गर्मी है। यहां मौसम अच्छा है, सुकून है। दूसरी ओर बच्चे यहां रह नहीं सकते। वो भी अपनी नौकरी और बच्चों की पढ़ाई की वजह से बाहर रहते हैं।’ गांव में कोई सुविधा नहीं है। बीमार पड़ो तो अस्पताल नहीं है। बावजूद इसके गुड्डी जब तक रह सकती हैं, यहीं रहना चाहती हैं। वो कहती हैं, ‘एक दिन मैं बेहोश हो गई थी। यहां कोई नहीं था। एक नेपाली मुझे उठाकर इलाज के लिए ले गया। यहां किसी तरह का कोई साधन ही नहीं है। अगर नेपाली न आता तो मेरी जान भी नहीं बचती।’ मैंने पूछा नेपाली, क्या वो भी आपके गांव के पास बसे हैं?गुड्‌डी देवी कहती हैं, ‘यहां से अधिकतर लोग जा चुके हैं। जमीन खाली रह गई है। नेपाल से आए कुछ लोग अब यहां छोड़ दी गई जमीन पर खेती करते हैं। मेरे पति भी समय काटने के लिए थोड़ी-बहुत खेती करते हैं।’ किस तरह की परेशानी आप लोगों को होती है?

कहने लगी, ‘ एक हो तो बताऊं। हर दिन एक नई मुसीबत आती है। आप देखिए हमारे आसपास के घरों में भी रहने वाले हमारे जैसे बुजुर्ग हैं।

पांच किलो अनाज भी नीचे पौड़ी से खरीदकर अपने घर तक लाना इस उम्र में आसान नहीं।

हम किसी से दूध की एक थैली भी नहीं मंगा सकते हैं। हम खुद की उम्र देखकर सोचते हैं कि दूध लेने के लिए पौड़ी कौन जाएगा।’

टीवी और रेडियो के जरिए यहां लोग बाहरी दुनिया से जुड़ते हैं, लेकिन कुछ दिन पहले गुड्डी का टीवी भी खराब हो गया।

वो कहती हैं, ‘हम टीवी देखकर समय काटते थे। एक दिन टीवी और सेट टॉप बॉक्स भी अचानक जल गया। अब उसे ठीक करने के लिए पांच हजार मांग रहे हैं।

हम पांच हजार कहां से दें। तीन महीने से टीवी भी बंद है। समय काटने के लिए इधर-उधर खेत में बैठते हैं। अब तो नींद भी नहीं आती, बेचैनी होती है। दवा खाकर सोना पड़ता है।’

गुड्डी की आंखों में आंसू आ जाते हैं, कहती हैं, ‘कभी-कभी मन उदास हो जाता है। रोने का मन करता है। सोचती हूं अकेले मैं क्या करूं, कहां जाऊं।

दुख होता है तो बच्चों की याद और भी ज्यादा आती है। फिर सोचती हूं कि वो भी यहां आकर क्या करेंगे। यहां कुछ है ही नहीं। वो अपने पास बुलाते हैं, मेरा वहां जाने का मन नहीं करता।’

मैं अब चिरंजी प्रसाद और कुंदनी देवी से मिलने पहुंचती हूं। इन दोनों ने बहुत दिल से गांव में एक बड़ा घर बनाया था। इसके चारों तरफ खेत हैं, आंगन में फलों के पौधे लगे हैं।

इंसानी हलचल के नाम पर सिर्फ यह दो बुजुर्ग यहां रहते हैं। खाली घर अब उन्हें काटता है।

62 साल की कुंदनी देवी कहती हैं,‘गढ़वाल में शांति बहुत है, लेकिन लोग रहने को तैयार नहीं है। यहां न कोई रोजगार है, न अवसर और न ही कोई सुविधा।

आज के लोग आसान जीवन चाहते हैं। इसलिए वो पहाड़ छोड़ मैदानी शहरों की तरफ चले जाते हैं।’

अपने मकान को निहारते हुए वो कहती हैं, ‘मेरे तीनों बेटे बाहर रहते हैं। जैसे-जैसे बूढ़े हो रहे हैं परेशानी बढ़ रही है। मैं चाहती हूं कि कोई भी एक बच्चा हमारे साथ रहे, लेकिन कोई तैयार नहीं।

बहुएं बार-बार अपने पास बुलाती हैं। हम भी अपने घर-गांव को छोड़कर उनके साथ नहीं रह सकते।

अब बहुत चिंता होती है कि आगे इस घर में कौन रहेगा। जैसे-जैसे बुढ़ापा बढ़ रहा है, चिंता भी बढ़ रही है। डर लगता है कि एक दिन ये घर खाली रह जाएगा, इस गांव से हमारा नाम मिट जाएगा।’

चिंरजी लाल इस बीच कहते हैं, ‘दो साल पहले मेरी तबीयत खराब हो गई थी। हम दोनों बुड्ढा-बुड्ढी अकेले रात में 11 बजे पौड़ी गए।

इस इलाके में तो असुविधा के डर से अपनी बेटी भी नहीं ब्याहते। मेरा छोटा बेटा योग गुरु है। उसकी शादी में दिक्कतें आ रही हैं।। बेटे का रिश्ता देखो तो लोग पूछते हैं कि देहरादून में घर है।

हम देहरादून में घर कहां से लाएं। यहां गांव में इतना बड़ा घर किसी को नहीं दिखता। हमारी तो बस एक यही अंतिम इच्छा है कि बेटे की शादी हो और बहू यहां रहे।’

पर्व-त्योहार में तो बच्चे आते होंगे, आप लोग के पास?

कुंदनी देवी कहती हैं, ‘बहुत कम। त्योहार पर बच्चे नहीं आते तो बहुत बुरा लगता है। बच्चों से ज्यादा पोतों की याद आती है। छोटे बच्चे घर में होते हैं तो घर-घर जैसा लगता है।

उन्हें अपनी भाषा सिखाते, अपने संस्कार देते, लेकिन हम कितने बदनसीब हैं कि यह तक नहीं कर पाते हैं।

चिरंजी प्रसाद ने अब खेत में काम करना भी सीमित कर दिया है। वो कहते हैं, ‘समस्याएं बहुत ज्यादा हैं। हम अगर खेती करना भी चाहे तो जानवर बहुत ज्यादा हैं। सूअर हैं, बंदर हैं, लंगूर, भालू, बाघ सब यहां हैं।

मैंने जानवरों को भगाने के लिए गुलेल रखी है, लेकिन वो किसी काम की नहीं है। इस पेड़ से बंदर को भगाओ तो उस पेड़ पर पहुंच जाते हैं। जानवरों ने खेती को बिल्कुल खत्म कर दिया है।’

कुछ लोगों ने यहां अपने लिए स्वरोजगार का प्रयास किया है। भार्गव चंदोला सामाजिक कार्यकर्ता हैं और यहां एक ईको होमस्टे भी चलाते हैं।

भार्गव कहते हैं, ‘सिर्फ रावत या रैगाण गांव ही नहीं, आसपास के सभी गांव खाली हैं। पहाड़ से 40 फीसदी से अधिक लोग चले गए हैं।

जब उत्तराखंड बनाने के लिए आंदोलन हुआ तो लोगों को उम्मीद थी कि पहाड़ में राजधानी बनेगी। यहां रोजगार के मौके पैदा होंगे, लेकिन देहरादून राजधानी बन गई।

पहाड़ में अब जिसके पास भी क्षमता है वो सब देहरादून में घर बनाते हैं। डॉक्टर, शिक्षक, सरकारी जॉब वाले, पेशेवर, सब देहरादून चले जाते हैं। पहाड़ में कोई रुकना ही नहीं चाहता।

अगर राजधानी पहाड़ में होती तो नेता और अफसर भी पहाड़ में रहते, यहां के लोगों के जीवन को करीब से देखते, उनकी मुश्किलों को समझते और कुछ करने का प्रयास करते, लेकिन सभी ने पहाड़ को अकेला छोड़ दिया है। हम बूढ़ों को अकेला छोड़ दिया है।

अंधेरा होने से पहले मैं पहाड़ से वापस लौटने लगती हूं। वापसी मेरी भुवनेश्वरी देवी के गांव के पास से हाेती है। सोचने लगती हूं कि सूरज छुपने से पहले उन्होंने खुद को कमरे में बंद कर लिया होगा।

मैं खुद को लाचार समझती हूं कि अगर मुझे पता होता कि उन्हें दूध के पैकेट की जरूरत है तो अपने साथ जरूर लेकर यहां आती।

यहां चारों तरफ हरियाली है। पक्षियों की आवाजें आ रही हैं। दिल को सुकून देने वाली शांति है। बीच-बीच में जंगली जानवरों की आवाज इस सुकून को तोड़ती है।

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